क्या भूल सकते हो कभी
बिन निगाहों वाले बाबा की,
सब कुछ देखती हुई वो निगाहें !
याद तो आज भी होगी,
याद तो आज भी होगी,
आंगन में अमरस का गिलास देती
बड़ी-अम्मा की वो प्यार भरी बाहें !!
सुबह-सबेरे प्रतिदिन
औरों के बागों से आम चुराना !
कैथा वाली बुआ की बाग पर
केवल अपना ही हक जमाना !!
पानी भरने के लिए बाबा का
कुए की जगत से हांक लगाना !
और तुम्हारा लोटिया लेकर,
फिर खेत की और निकल जाना !!
क्या भूल सकते हो कभी उसको,
खेत में घुस कर आलू खिलाना !
पता लगते ही गांव में बुआ का,
हम सब पर जोर-जोर से चिल्लाना !!
सच तो यह है, कि
आज भी हम कुछ नहीं भूले !
वक्त के साथ-साथ केवल,
अपने परिवारों में ही है घुले !!
क्या अपनों को कभी कोई,
यूँ ही कभी भूल पाता है !
वक्त पड़ने पर तो अपना ही
केवल दौड़ा चला आता है !!
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