लुप्त हो गई रौशनी हर तरफ,
तनिक देर य़ू ही जल क़े !
दिन की पहचान खो गई,
पहुच गए शाम क़े धुधलके !!
कल्पनातीत है यह अपार समुद्र
नहीं नज़र आता कही किनारा !
खोजता फिरता फिर भी न पाता,
हुआ अब अवगुंठन हमारा !!
हिला डुला इस अन्धकार से,
आ रहे कुछ पदचाप हल्के !
सोचता जो सुख-मुक्ति मार्ग,
नहीं जानता भ्रम मरुपथ क़े !!
बहुत ही उम्दा रचना की है भाई साहब आपने...बधाई...यू ही लिखते रहे...शुभकामनाएँ...जय माँ भवानी..जय हिंद...
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